विकास के झुनझुने के शोर ने दबा दी है जरूरत की आवाज

एक बार फिर शिवसेना ने अपने मुखपत्र 'सामना' के संपादकीय के जरिए बीजेपी पर निशाना साधा है. शिवसेना ने कहा, देश में राजनैतिक परिदृश्य तेजी से बदला है. खासकर पिछले दो सालों में इसमें बहुत बड़ा बदलाव आया है. 71 फीसदी भूभाग का सत्तासुख भोगनेवाली पार्टी अब महज 40 फीसदी पर सिमट चुकी है.


संपादकीय में लिखा, 'न केवल महाराष्ट्र बल्कि राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे महत्वपूर्ण प्रदेश अब भारतीय जनता पार्टी के पास नहीं हैं. हरियाणा में भले ही भाजपा ने चुनाव बाद गठबंधन का सौदा कर सरकार बचा ली हो पर स्वीकार्यता के मामले में उसे हर मोर्चे पर नाकामयाबी ही हाथ लगी है. इसी कड़ी में अब झटका देने की बारी झारखंड की नजर आ रही है.' वहां जारी विधानसभा चुनाव के मद्देनजर तस्वीर साफ है कि इस बार झारखंड की जनता भी सत्ता के अहंकार को जोर का झटका, जोर से ही देगी.


हालांकि भाजपा ने चुनाव जीतने के लिए वहां पूरी ताकत झोंक दी है. प्रधानमंत्री मोदी से लेकर राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह तक मैदान में कूद पड़े हैं पर मैदान में उन्हें सुनने को भीड़ नहीं जुट रही. संपादकीय में लिखा, अभी पिछले गुरुवार को ही अमित शाह चतरा और गढ़वा गए थे प्रचार करने. पर दुर्भाग्य से वहां उन्हें सुनने लोग ही नहीं जुटे. इस पर भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने खासी नाराजगी भी जताई, पर शायद यह नाराजगी जताने में वे देरी कर गए हैं. समय रहते अपनी सरकार पर उन्होंने यह नाराजगी जताई होती तो शायद आज यह नौबत नहीं आती.


वर्ष 2000 में झारखंड राज्य गठन से आज तक ज्यादातर वहां सत्ता भाजपा या उसके समर्थन से ही रही है. तब भी विकास के मामले में झारखंड हमेशा 'कुपोषित' ही बना रहा. आदिवासी संस्कृति और संपत्ति वाले प्राकृतिक संसाधनों के धनी इस राज्य में आज तक गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा, बीमारू स्वास्थ्य सेवाएं, संगठित अपराध और अराजकता का बोलबाला रहा. वहां के आदिवासियों का जीवन अभावग्रस्त और कर्जग्रस्त ही बना रहा. वहां के आदिवासी-किसानों के लिए आज भी जल, जंगल और जमीन ही जमीनी मुद्दा हैं. वो सत्ताधारी भाजपा से इसी पर सवाल भी पूछ रहे हैं. वो केंद्र के 'राष्ट्रीय पराक्रम' को ज्यादा तवज्जो नहीं देते, उन्हें 'अपनी' सरकार की स्थानीय नीति क्या है, इससे सरोकार है. इसी पर वे सत्ताधारी भाजपा से जवाब चाहते हैं.


- विकास के झुनझुने के शोर ने दबा दी है जरूरत की आवाज


झारखंड की ताजा चुनावी तस्वीर देखकर लगता भी है कि वहां की जनता का जो संघर्ष अट्ठारहवीं शताब्दी से चला आ रहा था, वो आज भी जारी है. उन्हें खुद की 'सरकार' तो मिली पर जल-जंगल-जमीन और अपने प्राकृतिक संसाधनों का अधिकार नहीं मिल पाया. इससे उन्हें अब भी बेदखल किया जा रहा है. विकास के झुनझुने के शोर ने उनके जरूरत की आवाज दबा दी है. जंगल-पेड़ कट गए पर उन्हें क्यों रोटी-रोजगार नहीं मिला? आज जनता इसी का जवाब चाहती है. इसी पर वो सवाल भी उठा रही है. अलबत्ता, यह चुनाव ही वहां के किसान-आदिवासियों की अस्मिता, स्वायत्तता, संस्कृति और संपत्ति को बचाने का समर है.


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